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हास्य-व्यंग्य >> रामलुभाया कहता है - समग्र व्यंग्य 4

रामलुभाया कहता है - समग्र व्यंग्य 4

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2993
आईएसबीएन :0000000

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नरेन्द्र कोहली का समग्र व्यंग्य का चौथा भाग

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Ramlubhaya kahata hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नरेन्द्र कोहली के व्यंग्यो का यह नवीन संग्रह, वक्रता और प्रखरता की अपनी परम्परा का निर्वाह करते हुए भी, उनकी पहले की व्यंग्य रचनाओं से कुछ भिन्न है। वे सदा से प्रयोग धर्मी रहे हैं। एक शिल्प को सिद्ध कर वे उसका अतिक्रमण कर आगे बढ़ जाते हैं। किसी एक प्रकार की छवि से बँध जाना उनको प्रिय नहीं है।

इन व्यंग्यों में आपको एक ओर राजनीति की मात्रा कुछ अधिक दिखाई देगी किन्तु दूसरी ओर यह भी लगेगा कि वे एक सीमित परिवार की सामान्य-सी कथा कह रहे हैं, जिसमें न कोई व्यंग्य है न कोई वक्रता। किन्तु अन्त आते ही रचना कोई ऐसा मोड़ ले लेती है कि परिवार और देश एक हो जाते हैं और वह कथा, पारिवारिक न होकर किसी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति पर व्यंग्य करने लगती है। पति-पत्नी की कथा कहते-कहते वे भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर भी व्यंग्य करने लगते हैं। उनकी भेदक दृष्टि पारिवारिक संबंधो से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों तक समान रूप से विसंगतियों को चुन लेती है। पत्नी हो, भाई हो, मित्र हो या पड़ोसी हो, वे अपने व्यवहार से अन्तर्राष्ट्रीय स्वार्थों और स्वार्थपूर्ण संबंधों को प्रकट करते रहते हैं।

वे केवल विसंगतियों पर व्यंग्य ही नहीं करते, क्षुद्रता, लोभ, स्वार्थ और विभाजक प्रवृत्तियों का खंडन करते हुए कुछ भावात्मक स्थापनाएँ भी करते रहते हैं। तथाकथित सुशिक्षित लोग अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग कर अपने समाज का अहित करते दिखाई पड़ते हैं तो नरेन्द्र कोहली कुछ अधिक उग्र हो उठते हैं। इस संग्रह में आपको अनेक ऐसी रचनाएँ मिलेंगी, जिनमें आदर्शों के नाम पर बने घातक दुर्गों पर ध्वंसकारी प्रहार किये गये हैं। नरेन्द्र कोहली के व्यंग्य का लक्ष्य है-निर्माण। व्यंग्य में से होते निर्माण को देखकर आप चकित रह जाएँगे।


प्रेमालाप

रामलुभाया बहुत प्रसन्न था। इतना कि धरती पर उसके पैर ही नहीं पड़ रहे थे। हर व्यक्ति उसे बधाई दे रहा था, हाथ मिला रहा था, उससे गले मिल रहा था; और एक मैं था कि उसकी ओर देख-देख कर मेरा दिल बैठता जा रहा था। भगवान जाने मुझ पर क्या मुसीबत आनेवाली है।

उसका पुत्र जब पहली बार अमरीका जा रहा था तो रामलुभाया मेरे पीछे पड़ गया था कि मैं उसके माध्यम से अपने पुत्र के लिए कुछ न कुछ अवश्य भेज दूँ। विदेश जानेवालों के हाथ उपहार भिजवाने का मुझे अच्छा अनुभव नहीं था। अच्छे-अच्छे मित्र भी कह देते थे कि उनके पास बहुत वजन है, वे किसी और का भार नहीं उठा सकते। पर यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही थी। वही मेरे पीछे पड़ा हुआ था कि घर का मामला था इसमें संकोच कैसा। मैं अवश्य ही कुछ न कुछ भेजूँ। वह मुझे अपनी दोस्ती का वास्ता दे रहा था। अपने बेटे के मेरे प्रति आदर सम्मान की चर्चा कर रहा था।

मेरा पुत्र अगस्त्य अमरीका में पढ़ रहा था। उसे कुछ पुस्तकों की आवश्यकता थी। परीक्षा निकट थी। पुस्तक मिलने में देर हुई तो उसके परीक्षाफल पर उसका दुष्प्रभाव पड़ सकता था। मैं रामलुभाया के प्रेम के मोह में फँस गया। मेरा लोभ जाग उठा। यदि मैं पुस्तक उसके पुत्र के हाथ भिजवा देता हूँ तो अगस्त्य को कल ही पुस्तक मिल जाएगी। डाक से एक सप्ताह तो लग ही जाएगा। इस प्रकार पाँच दिनों की बचत थी। और फिर मैं थोड़ी कह रहा था। वह तो रामलुभाया स्वयं ही मेरे पीछे पड़ा हुआ था। मैंने पुस्तक उसे दे दी।

तीसरे दिन अगस्त्य का फोन आया। रामलुभाया चाचाजी के बेटे का फोन आया है कि भार अधिक हो जाने के कारण वह मेरी पुस्तक दिल्ली में ही छोड़ आया है। कृपया मेरी पुस्तक जल्दी भेजें। मैंने तड़पकर रामलुभाया को फोन किया। पता चला कि वह जो किसी काम से ढाका गया हुआ है। सप्ताह भर बाद आएगा। मैंने उसकी पत्नी से उस पुस्तक के विषय में जानना चाहा तो उसका उत्तर था कि वह अपने पति के ऐसे कारनामों के विषय में कुछ नहीं जानती। अगली बार रामलुभाया स्वयं अमरीका पहुँच गया। उसने पत्र भी लिखा और फोन भी किया कि बेटे की बात और थी। अब तो वह स्वयं ही अमरीका जा रहा है। छुट्टियों में अगस्त्य उसके पास अवश्य आए। बहुत मजा रहेगा। अगस्त्य को भी फोन किया। अगस्त्य ने मुझसे पूछा। उसे छुट्टियों में होस्टल खाली करना होता था। कहीं तो जाना ही था। अब यदि रामलुभाया अपनी ओर से बुला रहा था तो जाने में क्या हर्ज था। वह उसके पास पहुँच गया। किंतु सामान समेत अपने घर आए अगस्त्य को उसने कह दिया कि उसके बेटे के साथ रहने वाले लड़के किसी अतिथि को रखने के लिए तैयार नहीं हैं। अगस्त्य ने पूछा कि वह अपने सामान समेत इस अपरिचित नगर में कहाँ जाए ? होटल कितने महँगे हैं, वह जानता ही है। अगस्त्य की उस परेशानी में भी रामलुभाया यह कहकर मुक्त हो गया कि अब बच्चों पर किसी का वश तो है नहीं।

उसके बेटे ने एक टेंट हाउस, खोल लिया तो हमारे घर के उत्सवों के लिए सब कुछ मुफ्त कर देने के रामलुभाया के प्रस्ताव बाढ़ के पानी के समान हमारे चारों ओर तैरने लगे। मैं फिर से एक बार ललचा गया और उसके बेटे को घर के पहले विवाह का सारा प्रबंध सौंप दिया।
उसका पुत्र बहुत प्रसन्न हुआ। उसे अच्छा बड़ा काम मिल गया था। काम अच्छा हो गया तो इसके पश्चात् और परिचितों के माध्यम से भी व्यापार मिलने की आशा बँधी थी।
विवाह से दो सप्ताह पहले उसने फोन किया कि यदि मैं चाहता हूँ कि विवाह के दिन टेंट लग जाए तो मैं पाँच सहस्र रुपए तत्काल जमा करवा दूँ।

मैं चकित रह गया। पर उसका कहना था कि व्यापार तो व्यापार ही होता है। उससे संबंधों का क्या लेना-देना। कोई भी व्यापारी बिना अग्रिम पैसे लिए काम नहीं करेगा। मैं मान गया और जाकर उसकी दुकान पर रुपए जमा करा आया।
अगले दिन फोन आया कि विवाहों की ऋतु है, इसलिए चीजों का भाव बढ़ गया है। मैं बताऊँ कि बढ़े हुए भाव में मुझे सामान चाहिए या नहीं। मैंने उसको समझाने का प्रयत्न करना चाहा, पर वह पूरा व्यापारी बन गया था। यद्यपि मैं समझ रहा था कि विवाह को इतना कम समय रह गया था कि मुझे और कहीं से सामान नहीं मिलेगा और यदि मिलेगा तो इससे भी महँगा मिलेगा, फिर भी मैंने झल्लाकर कह दिया कि मुझे उससे कुछ नहीं लेना। वह मेरे पैसे वापस कर दे।
उसका उत्तर था कि किसी भी काम के लिए गए अग्रिम पैसे वापस नहीं होते।

मेरी कल्पना अपने पागलपन में भी इतनी दूर तक नहीं दौड़ सकती थी कि जिस बच्चे को हमने गोद में खेलाया हो। जिसके माता-पिता हमें अपने परिवार का सदस्य मानते हों, वह बच्चा मुझसे इस प्रकार के व्यापार की जादूगरी करेगा। पर मैंने उससे सामान लिया नहीं और उसने मेरे रुपए लौटाए नहीं। पर कमाल तो रामलुभाया का था कि एक दिन भी उसकी आँखें नीची नहीं हुई।

आज फिर रामलुभाया कह रहा था, ‘‘अब तो बेटा एयर इंडिया में फ्लाइट पर्सर हो गया है। तुम लोग उसके विमान में यात्रा करना। देखना कैसे पलकों पर बैठाकर ले जाता है।’’
मेरी आंखें थीं कि देख रही थीं कि मैं टिकट लेकर विमान में चढ़ा हूँ। विमान आकाश में उड़ रहा है और रामलुभाया का पुत्र मेरे पास आया है, ‘‘अंकल ! आपकी सीट तो मैंने किसी और को दे दी है।’’
मैं चकित होकर रामलुभाया की ओर देखता रहा। वह कह रहा था, ‘‘अब तुम को टिकट का क्या करना। मुफ्त में दुनिया की सैर करो। बेटा एयर इंडिया में काम करने लगा है।’’

मेरी पत्नी ने मुझे कुहनी से टहोका मारा, ‘‘कैसे देख रहे हो। होश में आओ।’’
‘‘कोई ऐसे भी प्यार जता सकता है क्या ?’’ मैं बोला, ‘‘तनिक भी लज्जा नहीं है इसको।’’
‘‘तो क्या हो गया।’’ वह बोली, ‘‘तुम मुस्कराकर उसे बधाई दो। पचास वर्षों से हमारा देश पाकिस्तान के प्रत्येक नए प्रधानमंत्री का प्रेमालाप सुनता ही आ रहा है। न उन्होंने कहना बंद कर दिया या हमने सुनना बंद कर दिया ?’’


प्रेमिका

पता नहीं कालिदास की सचमुच मल्लिका जैसी कोई प्रेमिका थी या नहीं, किंतु मोहन राकेश ने आषाढ़ का एक दिन में जिस प्रेमिका को प्रस्तुत किया है, अपने दुर्भाग्य से मैंने उसे सच ही नहीं मान लिया था; यह भी मान लिया कि प्रेमिका ऐसी ही होती है। जैसे कुछ वर्ष पहले हिंदी फिल्मों को देख-देख कर मान लिया था कि भाभी वह होती है, जो प्रातः उठकर नहा-धोकर गीले बिखरे बालों से तुलसी को पानी देती है और एक बहुत ही मीठा भजन गाती है। हमारे घर भी भाभी आई और उसने जब यह शर्त रखी कि प्रातः जब तक उसे बिस्तर पर ही चाय नहीं दी जाएगी, तब तक वह उठेगी ही नहीं, तब समझ में आया कि जैसे प्रत्येक चमकीला पदार्थ सोना नहीं होता, वैसे ही बंबइया फिल्मों की हर बात सत्य नहीं होती। यह तो बाद में पता चला कि उसकी कोई भी बात सच नहीं होती।

पर इस समय मैं सत्य की नहीं प्रेमिका की बात करने बैठा हूँ। मैंने ‘आषाढ़ का एक दिन’ पढ़ा तो मल्लिका पर मुग्ध ही रह गया। कालिदास गाँव छोड़कर उज्जयिनी चला जाता है। वहाँ से वह कश्मीर का शासक बन जाता है। प्रियंगुमंजरी से विवाह हो जाता है। और फिर बिना किसी विशेष कारण के अपने गाँव लौट आता है। मल्लिका का विवाह हो चुका है। उसकी एक छोटी-सी बच्ची भी है। फिर भी वह कालिदास को बताती है कि उ

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